घर 4 दीवारी से नहीं 4 जनों से बनता हैपरिवार उनके प्रेम और तालमेल से बनता है सभी कार्यों को जोड़ कर साधना, सफल गृहणी का काम है नौकरीवाली से पैसा बनेगा/घर नहीं प्रभाव और दुर्भाव में, आधुनिक/पारिवारिक तालमेल से उत्तम घर परिवार से देश आगे बड़े रसोई, बच्चों-परिवार की देख भाल, गृह सज्जा के बीच अपने लिए भी ध्यान देती शिक्षित नारी-(निस्संकोच ब्लॉग पर टिप्पणी/अनुसरण/ निशुल्क सदस्यता व yugdarpan पर इमेल/चैटकरें, संपर्कसूत्र- तिलक संपादक युगदर्पण 09911111611, 9999777358.

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: : : क्या आप मानते हैं कि अपराध का महिमामंडन करते अश्लील, नकारात्मक 40 पृष्ठ के रद्दी समाचार; जिन्हे शीर्षक देख रद्दी में डाला जाता है। हमारी सोच, पठनीयता, चरित्र, चिंतन सहित भविष्य को नकारात्मकता देते हैं। फिर उसे केवल इसलिए लिया जाये, कि 40 पृष्ठ की रद्दी से क्रय मूल्य निकल आयेगा ? कभी इसका विचार किया है कि यह सब इस देश या हमारा अपना भविष्य रद्दी करता है? इसका एक ही विकल्प -सार्थक, सटीक, सुघड़, सुस्पष्ट व सकारात्मक राष्ट्रवादी मीडिया, YDMS, आइयें, इस के लिये संकल्प लें: शर्मनिरपेक्ष मैकालेवादी बिकाऊ मीडिया द्वारा समाज को भटकने से रोकें; जागते रहो, जगाते रहो।।: : नकारात्मक मीडिया के सकारात्मक विकल्प का सार्थक संकल्प - (विविध विषयों के 28 ब्लाग, 5 चेनल व अन्य सूत्र) की एक वैश्विक पहचान है। आप चाहें तो आप भी बन सकते हैं, इसके समर्थक, योगदानकर्ता, प्रचारक,Be a member -Supporter, contributor, promotional Team, युगदर्पण मीडिया समूह संपादक - तिलक.धन्यवाद YDMS. 9911111611: :

Saturday, November 8, 2014

स्वतंत्रता उद्घोष -विकृत परिभाषा

स्वतंत्रता उद्घोष -विकृत परिभाषा 
Photo: मैं आजादी चाहती हूं कि किसे और कहां पर चूम लूं। इससे किसी को मतलब नहीं होना चाहिए । चुंबन विरोध का सबसे अच्छा तरीका है, इसलिए हम नैतिकता का पाठ पढ़ाने वालों के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं । हम उनके साथ कोई टकराव नहीं चाहते इसलिए हम प्यार का संदेश फैलाने की कोशिश कर रहे हैं---:: सायंतनी (पीएचडी की छात्रा)
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मित्रो सुरुआत कुछ कटु सब्दो के साथ करता हु ''सायंतनी जैसे यदि रेप की शिकायत करे तो भी क्या करना है, आखिर शरीर भी तो ''किस'' लिये बनाया गया है, जो मर्जी है वह सबको करने दो । माता पिता कें सामने खुले आम सडको मे भी जैसे कुत्ते करते है क्योकि ''संघ'' का विरोध जो करना है"
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मित्रो किसी हिन्दी फिल्म का यह गाना "किस किस को दूं" पहले तो समझ ही नहीं आया कि गीतकार कहना क्या चाहता है । फिर एक दिन अचानक पुराना दोहा पढ़ा- "कनक कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय" पढ़ा तो बात कुछ समझ में आई जैसे यहां एक "कनक" का अर्थ सोना और दूसरे का मतलब धतूरा है वैसे ही इस गाने में पहले "किस" का अर्थ चुम्बन और दूसरे का मतलब अजनबी है ।

अब आप कहेंगे कि ''क्या बाघेल साहब आप सठिया गए हैं जो बुढ़ापे में प्रवेश करते ही ऎसी-वैसी बातें कर रहे हैं'' दरअसल मुद्दा कुछ नौजवानों और नौजवानियों ने उठाया है । एक शहर में "मॉरल पुलिसिंग" के जवाब में इन लोगों ने "किस फेस्टिवल" मनाने का निर्णय किया । 

अरे होनहारो स्त्री-पुरूष् को भगवान ने बनाया है और दोनों ने मिलकर संसार रचा है पर यह सर्जन खुले में करने की क्या जरूरत है ? अगर बेशर्मी का मतलब ही आजादी है तो काहे को वस्त्र धारण कर घूमते हो । मवेशियों की तरह प्राकृतिक रूप में रहो । खूब "किस" करो और किस किस के साथ करना है इसका हिसाब भी रखो लेकिन पेड़ की टुगली पर बैठ कर ओछी हरकतें करोगे तो मेरे जैसा कोई न कोई तो टोकेगा ही ।

अल्प वस्त्रों में विचरण करने वाली स्मार्ट पीढ़ी खुद का नहीं तो अपने जन्मदाताओं की इज्जत का तो कुछ ख्याल रखे । हो सकता है हमारी बातें उनको नागवार गुजरें। गुजरें अपनी बला से। अब ये न कहना कि हम बच्चे से सीधे बूढ़े हो गए। जवानी हम पर भी चढ़ी थी लेकिन जवानी का ढोल कभी नहीं कूटा । 

अब साहब हम कोई नामी राजनीतिज्ञ तो हैं नहीं जो ऎसी दिलचस्प खबरों को नजरअंदाज करें । हम तो लोकतंत्र/ समाजतन्त्र के साधारण प्रहरी हैं । फोकटी चंद है ,फुरसतीलाल है, हम तो अपना समय पास करेंगे साथ ही आपको भी लगाकर रखेंगे । तो हमारे बच्चो जितना मर्ज़ी आये उतना किस करो लेकिन इतना जरूर चाहते हैं समाज में कुछ तो पर्दादारी बानी रहे रहे । नहीं तो हम ठहरे संघी हमारी लठ्ठ तो तैयार ही रहती है, हमारे संस्कृत पर हमला करने वालो पर ॥  1)यदि पूजा पाठ व्यक्तिगत मामला है, घर पर करें और चौराहे बीच पशुवत प्रेम प्रदर्शन की स्वतंत्रता नैतिकता का पाठ पढ़ाने वालों के विरुद्ध प्रदर्शन करना है। तब ऐसी अविवेकी सोच के व्यक्ति /व्यक्तियों का तो मस्तिष्क परिक्षण आवश्यक हो जाता है। धर्म /समाज का मामला सामूहिक क्रिया हो सकता है, किन्तु इन लफंगों का यह कृत्य सामूहिक अर्थात कोई पशुओं की भांति कभी, कहीं, किसी के साथ, कुछ भी करे, असामाजिक ही कहा जायेगा। 
  2)यदि इन लफंगों के कुतर्क को माना जाये कि मनमानी की स्वतंत्रता में बढ़ा नैतिकता का पाठ पढ़ाने वालों के विरुद्ध ये हठधर्मी प्रदर्शन उचित है, तब इसी तर्क से ये भी कहा जा सकता है कि धर्मनिरपेक्षता का पाठ पढ़ाने वालों के विरुद्ध भी मैं आजादी चाहता हूं।  तब धर्मनिरपेक्षता के आधुनिक शर्मनिरपेक्ष ठेकेदार उसे सांप्रदायिक बतलाते हैं ? 
  3)सायंतनी (छात्रा की शोध) अविवेक पूर्ण बात कर रही है कि किसे और कहां पर चूम लूं। इससे किसी को मतलब नहीं होना चाहिए। यहाँ व्यक्तिगत होने को बाध्य करती है कि इसकी शोध का स्तर क्या रहेगा ? मैं हत्या करूँ या आत्महत्या  इससे किसी को मतलब नहीं होना चाहिए। पुलिस बंदी बनाये, तो गुंडा पुलिस कहलाये, और हम स्वतंत्रता के रक्षक बन नियम तोड़ने आये है। 
   4)प्रदर्शनी बिकाऊ माल की, सजा चमका कर, प्रस्तुति के लिए होती है। फूहड़ प्रदर्शन स्वतंत्रता का नहीं छिछोरेपन का प्रतीक है। अत्यधिक उत्तेजक प्रदर्शन करके हम तो चले गए, किन्तु उत्तेजक का शिकार कोई अन्य बन गया। तब समाज को मोमबत्ती दिखाने वाले, स्वयं अंधकार से बाहर आना नहीं चाहते। कुतर्क- 'जिनके साथ ऐसा हुआ, वे अंग प्रदर्शन नहीं 
कर रही थी।  आरोप- पुरुषों की मानसिकता ही खराब है। 
   युवा मित्रो, सात्विक जीवन में मेरे शरीर का नाप, भार तथा चाल तो 16 से 60 की आयु में बदले नहीं, किन्तु इतना ही नहीं है, जीवन में आज तक किसी से भय न खाया है, न किसी सच्चे को अनावश्यक धमकाया है। अधिक कहना आत्म स्तुति हो जायेगा। एक शेर जो मैंने 40 -42 वर्ष पूर्व लिखा तथा वीर अर्जुन में प्रकशित हुआ था - 
सत्य की राह में जॉ चल नहीं पाये, जो भय खाए व रुक जाये, 
जिसमे रवानी न हो, वो जवानी भी क्या खाक जवानी होगी। 
जिन्हे जवानी की प्रदर्शनी में रूचि है, वो अंग प्रदर्शन से नहीं, इसके 'निडर प्रवाह' से प्रमाणित करते हैं।
जहाँ संस्कार का संचार ही प्रवाहित न हो, वे अंग प्रदर्शन से अपने जिवंत होने का छद्म प्रमाण देते हैं। 
   मित्रो, हम तो लोकतंत्र/ समाजतन्त्र के साधारण प्रहरी हैं। बाघेल जी के शब्दों में फोकटी चंद है, फुरसतीलाल है, किन्तु समय का सदुपयोग हम अपना तो करेंगे, साथ ही आपको भी इसमें लगाकर रखेंगे। तो हमारे बच्चो, जितना आपका मन चाहे, उतना प्रेम करो किन्तु इतना अवश्य चाहते हैं कि मानव सामाजिक जीव है, पशु नहीं। पशुवत आचरण न करें। पशु या मानव समाज में कुछ अंतर है, तो पर्दादारी बनी रहे। नहीं तो हम ठहरे संघी, हमारी लठ्ठ तो तैयार ही रहती है, हमारे संस्कृति पर प्रहार करने वालो पर॥
"अंधेरों के जंगल में, दिया मैंने जलाया है |
इक दिया, तुम भी जलादो; अँधेरे मिट ही जायेंगे ||"- तिलक
घर 4 दीवारी से नहीं 4 जनों से बनता है, परिवार उनके प्रेम
और तालमेल से बनता है | आओ मिलकर इसे बनायें; - तिलक

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