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Saturday, March 19, 2011

होली का इतिहास (बुराइयों के अंत का प्रतीक)

होली का इतिहास (बुराइयों के अंत का प्रतीक)



होली

होली
होली के अवसर पर गुलाल से रंगीन चेहरा।


होली वसंत ऋतु में मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण भारतीय त्योहार है। यह पर्व हिंदू पंचांग के अनुसार फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। रंगों का त्योहार कहा जाने वाला यह पर्व पारंपरिक रूप से 2 दिन मनाया जाता है। पहले दिन को होलिका जलायी जाती है, जिसे होलिका दहन भी कहते है। दूसरे दिन, जिसे धुरड्डी, धुलेंडी, धुरखेल या धूलिवंदन कहा जाता है, लोग एक दूसरे पर रंगअबीर-गुलाल इत्यादि लगते हैं, ढोल बजा कर होली के गीत गाये जाते हैं, और घर-घर जा कर लोगों को रंग लगाया जाता है। ऐसा माना जाता है कि होली के दिन लोग पुरानी कटुता को भूल कर गले मिलते हैं और फिर से मित्र बन जाते हैं। एक दूसरे को रंगने और गाने-बजाने का क्रम दोपहर तक चलता है। इसके बाद स्नान कर के विश्राम करने के बाद नए कपड़े पहन कर शाम को लोग एक दूसरे के घर मिलने जाते हैं, गले मिलते हैं और मिठाइयाँ खिलाते हैं।[१]
राग-रंग का यह लोकप्रिय पर्व वसंत का संदेशवाहक भी है।[२] राग अर्थात संगीत और रंग तो इसके प्रमुख अंग हैं ही, पर इनको उत्कर्ष तक पहुँचाने वाली प्रकृति भी इस समय रंग-बिरंगे यौवन के साथ अपनी चरम अवस्था पर होती है। फाल्गुन माह में मनाए जाने के कारण इसे फाल्गुनी भी कहते हैं। होली का त्योहार वसंत पंचमी से ही आरंभ हो जाता है। उसी दिन पहली बार गुलाल उड़ाया जाता है। इस दिन सेफाग और धमार का गाना प्रारंभ हो जाता है। खेतों में सरसों खिल उठती है। बाग-बगीचों में फूलों की आकर्षक छटा छा जाती है। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और मनुष्य सब उल्लास से परिपूर्ण हो जाते हैं। खेतों में गेहूँ की बालियाँ इठलाने लगती हैं। किसानों का ह्रदय ख़ुशी से नाच उठता है। बच्चे-बूढ़े सभी व्यक्ति सब कुछ संकोच और रूढ़ियाँ भूलकर ढोलक-झाँझ-मंजीरों की धुन के साथ नृत्य-संगीत व रंगों में डूब जाते हैं। चारों तरफ़ रंगों की फुहार फूट पड़ती है।[३] यह एक अत्यंत प्राचीन धार्मिक, सामाजिक उत्सव है जिसका उद्देश्य : धार्मिक निष्ठा, व उत्सव, मनोरंजन द्वारा सांस्कृतिक परम्पराओं को जीवित रखना है।  
होली भारत का अत्यंत प्राचीन पर्व है जो होली, होलिका या होलाका[४] नाम से मनाया जाता था। वसंत की ऋतु में हर्षोल्लास के साथ मनाए जाने के कारण इसे वसंतोत्सव और काम-महोत्सव भी कहा गया है।
राधा-श्याम गोप और गोपियो की होली
अधिकतर यह पूर्वी भारत में ही मनाया जाता था। इस पर्व का वर्णन अनेक पुरातन धार्मिक पुस्तकों में मिलता है। इनमें प्रमुख हैं, जैमिनी के पूर्व मीमांसा-सूत्र और कथा गार्ह्य-सूत्र। नारद पुराण औऱ भविष्य पुराण जैसे पुराणों की प्राचीन हस्तलिपियों और ग्रंथों में भी इस पर्व का उल्लेख मिलता है। विंध्य क्षेत्र के रामगढ़ स्थान पर स्थित ईसा से ३०० वर्ष पुराने एक अभिलेख में भी इसका उल्लेख किया गया है। संस्कृत साहित्य में वसन्त ऋतु और वसन्तोत्सव अनेक कवियों के प्रिय विषय रहे हैं।
सुप्रसिद्ध मुस्लिम पर्यटक अलबरूनी ने भी अपने ऐतिहासिक यात्रा संस्मरण में होलिकोत्सव का वर्णन किया है। भारत के अनेक मुस्लिम कवियों ने अपनी रचनाओं में इस बात का उल्लेख किया है कि होलिकोत्सव केवल हिंदू ही नहीं मुसलमान भी मनाते हैं। सबसे प्रामाणिक इतिहास की चित्रावली हैं मुगल काल की और इस काल में होली के किस्से उत्सुकता जगाने वाले हैं। अकबर का जोधाबाई के साथ तथा जहाँगीर का नूरजहाँ के साथ होली खेलने का वर्णन मिलता है। अलवर संग्रहालय के एक चित्र में जहाँगीर को होली खेलते हुए दिखाया गया है।[५] शाहजहाँ के समय तक होली खेलने का मुग़लिया अंदाज़ ही बदल गया था। इतिहास में वर्णन है कि शाहजहाँ के ज़माने में होली को ईद-ए-गुलाबी या आब-ए-पाशी (रंगों की बौछार) कहा जाता था।[६] अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र के बारे में प्रसिद्ध है कि होली पर उनके मंत्री उन्हें रंग लगाने जाया करते थे।[७] मध्ययुगीन हिन्दी साहित्य में दर्शित कृष्ण की लीलाओं में भी होली का विस्तृत वर्णन मिलता है।
इसके अतिरिक्त प्राचीन चित्रों, भित्तिचित्रों और मंदिरों की दीवारों पर इस उत्सव के चित्र मिलते हैं। विजयनगर की राजधानी हंपी के १६वी शताब्दी के एक चित्रफलक पर होली का आनंददायक चित्र उकेरा गया है। इस चित्र में राजकुमारों और राजकुमारियों को दासियों सहित रंग और पिचकारी के साथ राज दम्पत्ति को होली के रंग में रंगते हुए दिखाया गया है। १६वी शताब्दी की अहमदनगर की एक चित्र आकृति का विषय वसंत रागिनी ही है। इस चित्र में राजपरिवार के एक दंपत्ति को बगीचे में झूला झूलते हुए दिखाया गया है। साथ में अनेक सेविकाएँ नृत्य-गीत व रंग खेलने में व्यस्त हैं। वे एक दूसरे पर पिचकारियों से रंग डाल रहे हैं। मध्यकालीन भारतीय मंदिरों के भित्तिचित्रों और आकृतियों में होली के सजीव चित्र देखे जा सकते हैं। उदाहरण के लिए इसमें १७वी शताब्दी की मेवाड़ की एक कलाकृति में महाराणा को अपने दरबारियों के साथ चित्रित किया गया है। शासक कुछ लोगों को उपहार दे रहे हैं, नृत्यांगना नृत्य कर रही हैं और इस सबके मध्य रंग का एक कुंड रखा हुआ है। बूंदी से प्राप्त एक लघुचित्र में राजा को हाथीदाँत के सिंहासन पर बैठा दिखाया गया है जिसके गालों पर महिलाएँ गुलाल मल रही हैं।[८]
भगवान नृसिंह द्वारा हिरण्यकशिपु का वध
होली के पर्व से अनेक कहानियाँ जुड़ी हुई हैं। इनमें से सबसे प्रसिद्ध कहानी है प्रह्लाद की। माना जाता है कि प्राचीन काल में हिरण्यकशिपु नाम का एक अत्यंत बलशाली असुर था। अपने बल के दर्प में वह स्वयं को ही ईश्वर मानने लगा था। उसने अपने राज्य में ईश्वर का नाम लेने पर ही पाबंदी लगा दी थी। हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रह्लाद ईश्वर भक्त था। प्रह्लाद की ईश्वर भक्ति से क्रुद्ध होकर हिरण्यकशिपु ने उसे अनेक कठोर दंड दिए, परंतु उसने ईश्वर की भक्ति का मार्ग न छोड़ा। हिरण्यकशिपु की बहन होलिका को वरदान प्राप्त था कि वह आग में भस्म नहीं हो सकती। हिरण्यकशिपु ने आदेश दिया कि होलिका प्रह्लाद को गोद में लेकर आग में बैठे। आग में बैठने पर होलिका तो जल गई, पर प्रह्लाद बच गया। ईश्वर भक्त प्रह्लाद की याद में इस दिन होली जलाई जाती है।[९] प्रतीक रूप से यह भी माना जाता है कि प्रह्लाद का अर्थ आनन्द होता है। वैर और उत्पीड़न की प्रतीक होलिका (जलाने की लकड़ी) जलती है और प्रेम तथा उल्लास का प्रतीक प्रह्लाद (आनंद) अक्षुण्ण रहता है।[१०]
प्रह्लाद की कथा के अतिरिक्त यह पर्व राक्षसी ढुंढीराधा कृष्ण के रास और कामदेव के पुनर्जन्म से भी जुड़ा हुआ है।[११] कुछ लोगों का मानना है कि होली में रंग लगाकर, नाच-गाकर लोग शिव के गणों का वेश धारण करते हैं तथा शिव की बारात का दृश्य बनाते हैं। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि भगवान श्रीकृष्ण ने इस दिन पूतना नामक राक्षसी का वध किया था। इसी खु़शी में गोपियों और ग्वालों ने रासलीला की और रंग खेला था।[१२]

परंपराएँ

होली के पर्व की तरह इसकी परंपराएँ भी अत्यंत प्राचीन हैं, और इसका स्वरूप और उद्देश्य समय के साथ बदलता रहा है। प्राचीन काल में यह विवाहित महिलाओं द्वारा परिवार की सुख समृद्धि के लिए मनाया जाता था और पूर्ण चंद्र की पूजा करने की परंपरा थी। । वैदिक काल में इस पर्व को नवात्रैष्टि यज्ञ कहा जाता था। उस समय खेत के अधपके अन्न को यज्ञ में दान करके प्रसाद लेने का विधान समाज में व्याप्त था। अन्न को होला कहते हैं, इसी से इसका नाम होलिकोत्सव पड़ा। भारतीय ज्योतिष के अनुसार चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के दिन से नववर्ष का भी आरंभ माना जाता है। इस उत्सव के बाद ही चैत्र महीने का आरंभ होता है। अतः यह पर्व नवसंवत का आरंभ तथा वसंतागमन का प्रतीक भी है। इसी दिन प्रथम पुरुष मनु का जन्म हुआ था, इस कारण इसे मन्वादितिथि कहते हैं।[१३]

होलिका दहन
होली का पहला काम झंडा या डंडा गाड़ना होता है। इसे किसी सार्वजनिक स्थल या घर के आहाते में गाड़ा जाता है। इसके पास ही होलिका की अग्नि इकट्ठी की जाती है। होली से काफ़ी दिन पहले से ही यह सब तैयारियाँ शुरू हो जाती हैं। पर्व का पहला दिन होलिका दहन का दिन कहलाता है। इस दिन चौराहों पर व जहाँ कहीं अग्नि के लिए लकड़ी एकत्र की गई होती है, वहाँ होली जलाई जाती है। इसमें लकड़ियाँ और उपले प्रमुख रूप से होते हैं। कई स्थलों पर होलिका में भरभोलिए[१४] जलाने की भी परंपरा है। भरभोलिए गाय के गोबर से बने ऐसे उपले होते हैं जिनके बीच में छेद होता है। इस छेद में मूँज की रस्सी डाल कर माला बनाई जाती है। एक माला में 7 भरभोलिए होते हैं। होली में आग लगाने से पहले इस माला को भाइयों के सिर के ऊपर से 7 बार घूमा कर फेंक दिया जाता है। रात को होलिका दहन के समय यह माला होलिका के साथ जला दी जाती है। इसका यह आशय है कि होली के साथ भाइयों पर लगी बुरी नज़र भी जल जाए।[१४] लकड़ियों व उपलों से बनी इस होली का दोपहर से ही विधिवत पूजन आरंभ हो जाता है। घरों में बने पकवानों का यहाँ भोग लगाया जाता है। दिन ढलने पर ज्योतिषियों द्वारा निकाले मुहूर्त पर होली का दहन किया जाता है। इस आग में नई फसल की गेहूँ की बालियों और चने के होले को भी भूना जाता है। होलिका का दहन समाज की समस्त बुराइयों के अंत का प्रतीक है। यह बुराइयों पर अच्छाइयों की विजय का सूचक है। गाँवों में लोग देर रात तक होली के गीत गाते हैं तथा नाचते हैं।
सार्वजनिक होली मिलन
होली से अगला दिन धूलिवंदन कहलाता है। इस दिन लोग रंगों से खेलते हैं। सुबह होते ही सब अपने मित्रों और रिश्तेदारों से मिलने निकल पड़ते हैं। गुलाल और रंगों से सबका स्वागत किया जाता है। लोग अपनी ईर्ष्या-द्वेष की भावना भुलाकर प्रेमपूर्वक गले मिलते हैं तथा एक-दूसरे को रंग लगाते हैं। इस दिन जगह-जगह टोलियाँ रंग-बिरंगे कपड़े पहने नाचती-गाती दिखाई पड़ती हैं। बच्चे पिचकारियों से रंग छोड़कर अपना मनोरंजन करते हैं। सारा समाज होली के रंग में रंगकर एक-सा बन जाता है। रंग खेलने के बाद देर दोपहर तक लोग नहाते हैं और शाम को नए वस्त्र पहनकर सबसे मिलने जाते हैं। प्रीति भोज तथा गाने-बजाने के कार्यक्रमों का आयोजन करते हैं।
होली के दिन घरों में खीर, पूरी और पूड़े आदि विभिन्न व्यंजन पकाए जाते हैं। इस अवसर पर अनेक मिठाइयाँ बनाई जाती हैं जिनमें गुझियों का स्थान अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। बेसन के सेव और दहीबड़े भी सामान्य रूप से उत्तर प्रदेश में रहने वाले हर परिवार में बनाए व खिलाए जाते हैं। कांजीभांग और ठंडाई इस पर्व के विशेष पेय होते हैं। पर ये कुछ ही लोगों को भाते हैं। इस अवसर पर उत्तरी भारत के प्रायः सभी राज्यों के सरकारी कार्यालयों में अवकाश रहता है, पर दक्षिण भारत में उतना लोकप्रिय न होने के कारण से इस दिन सरकारी संस्थानों में अवकाश नहीं रहता ।

विशिष्ट उत्सव

भारत में होली का उत्सव अलग-अलग प्रदेशों में भिन्नता के साथ मनाया जाता है। ब्रज की होली आज भी सारे देश के आकर्षण का बिंदु होती है। बरसाने की लठमार होली[१५] काफ़ी प्रसिद्ध है। इसमें पुरुष महिलाओं पर रंग डालते हैं और महिलाएँ उन्हें लाठियों तथा कपड़े के बनाए गए कोड़ों से मारती हैं। इसी प्रकार मथुरा औरवृंदावन में भी १५ दिनों तक होली का पर्व मनाया जाता है। कुमाऊँ की गीत बैठकी[१६] में शास्त्रीय संगीत की गोष्ठियाँ होती हैं। यह सब होली के कई दिनों पहले शुरू हो जाता है। हरियाणा की धुलंडी में भाभी द्वारा देवर को सताए जाने की प्रथा है। बंगाल की दोल जात्रा[१७] चैतन्य महाप्रभु के जन्मदिन के रूप में मनाई जाती है। जलूस निकलते हैं और गाना बजाना भी साथ रहता है। इसके अतिरिक्त महाराष्ट्र की रंग पंचमी[१८] में सूखा गुलाल खेलने, गोवा के शिमगो[१९] में जलूस निकालने के बाद सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन तथा पंजाब के होला मोहल्ला[२०] में सिक्खों द्वारा शक्ति प्रदर्शन की परंपरा है। तमिलनाडु की कमन पोडिगई[२१] मुख्य रूप से कामदेव की कथा पर आधारित वसंतोतसव है जबकि मणिपुर के याओसांग[२२] में योंगसांग उस नन्हीं झोंपड़ी का नाम है जो पूर्णिमा के दिन प्रत्येक नगर-ग्राम में नदी अथवा सरोवर के तट पर बनाई जाती है। दक्षिण गुजरात के आदिवासियों के लिए होली सबसे बड़ा पर्व है, छत्तीसगढ़ की होरी[२३] में लोक गीतों की अद्भुत परंपरा है और मध्यप्रदेश के मालवा अंचल के आदिवासी इलाकों में बेहद धूमधाम से मनाया जाता है भगोरिया[२४], जो होली का ही एक रूप है। बिहार का फगुआ[२५] जम कर मौज मस्ती करने का पर्व है और नेपाल की होली[२६] में इस पर धार्मिक व सांस्कृतिक रंग दिखाई देता है। इसी प्रकार विभिन्न देशों में बसे प्रवासियों तथा धार्मिक संस्थाओं जैसे इस्कॉन या वृंदावन के बांके बिहारी मंदिर में अलग अलग प्रकार से होली के शृंगार व उत्सव मनाने की परंपरा है जिसमें अनेक समानताएँ और भिन्नताएँ हैं।

साहित्य में होली

प्राचीन काल के संस्कृत साहित्य में होली के अनेक रूपों का विस्तृत वर्णन है। श्रीमद्भागवत महापुराण में रसों के समूह रास का वर्णन है। अन्य रचनाओं में 'रंग' नामक उत्सव का वर्णन है जिनमें हर्ष की प्रियदर्शिका व रत्नावली[क] तथा कालिदास की कुमारसंभवम् तथा मालविकाग्निमित्रम् शामिल हैं। कालिदास रचित ऋतुसंहार में पूरा एक सर्ग ही 'वसन्तोत्सव' को अर्पित है। भारविमाघ और अन्य कई संस्कृत कवियों ने वसन्त की खूब चर्चा की है। चंद बरदाई द्वारा रचित हिंदी के पहले महाकाव्यपृथ्वीराज रासो में होली का वर्णन है। भक्तिकाल और रीतिकाल के हिन्दी साहित्य में होली और फाल्गुन माह का विशिष्ट महत्व रहा है। आदिकालीन कवि विद्यापति से लेकर भक्तिकालीन सूरदासरहीमरसखानपद्माकर[ख] , जायसीमीराबाईकबीर और रीतिकालीन बिहारीकेशवघनानंद आदि अनेक कवियों को यह विषय प्रिय रहा है। महाकवि सूरदास ने वसन्त एवं होली पर 78 पद लिखे हैं। पद्माकर ने भी होली विषयक प्रचुर रचनाएँ की हैं।[२७] इस विषय के माध्यम से कवियों ने जहाँ एक ओर नितान्त लौकिक नायक नायिका के बीच खेली गई अनुराग और प्रीति की होली का वर्णन किया है, वहीं राधा कृष्ण के बीच खेली गई प्रेम और छेड़छाड़ से भरी होली के माध्यम से सगुण साकार भक्तिमय प्रेम और निर्गुण निराकार भक्तिमय प्रेम का निष्पादन कर डाला है।[२८] सूफ़ी संत हज़रत निज़ामुद्दीन औलियाअमीर खुसरो और बहादुर शाह ज़फ़र जैसे मुस्लिम संप्रदाय का पालन करने वाले कवियों ने भी होली पर सुंदर रचनाएँ लिखी हैं जो आज भी जन सामान्य में लोकप्रिय हैं।[६]आधुनिक हिंदी कहानियों प्रेमचंद की राजा हरदोल, प्रभु जोशी की अलग अलग तीलियाँतेजेंद्र शर्मा की एक बार फिर होली, ओम प्रकाश अवस्थी की होली मंगलमय होतथा स्वदेश राणा की हो ली में होली के अलग अलग रूप देखने को मिलते हैं। भारतीय फ़िल्मों में भी होली के दृश्यों और गीतों को सुंदरता के साथ चित्रित किया गया है। इस दृष्टि से शशि कपूर की उत्सवयश चोपड़ा की सिलसिलावी शांताराम की झनक झनक पायल बाजे और नवरंग इत्यादि उल्लेखनीय हैं।[२९]

संगीत में होली

भारतीय शास्त्रीय, उपशास्त्रीय, लोक तथा फ़िल्मी संगीत की परम्पराओं में होली का विशेष महत्व है। शास्त्रीय संगीत में धमार का होली से गहरा संबंध है, हाँलाँकि ध्रुपद, धमार, छोटे व बड़े ख्याल औरठुमरी में भी होली के गीतों का सौंदर्य देखते ही बनता है। कथक नृत्य के साथ होली, धमार और ठुमरी पर प्रस्तुत की जाने वाली अनेक सुंदर बंदिशें जैसे चलो गुंइयां आज खेलें होरी कन्हैया घर आज भी अत्यंत लोकप्रिय हैं। ध्रुपद में गाये जाने वाली एक लोकप्रिय बंदिश है खेलत हरी संग सकल, रंग भरी होरी सखी। भारतीय शास्त्रीय संगीत में कुछ राग ऐसे हैं जिनमें होली के गीत विशेष रूप से गाए जाते हैं।बसंतबहारहिंडोल और काफ़ी ऐसे ही राग हैं। होली पर गाने बजाने का अपने आप वातावरण बन जाता है और जन जन पर इसका रंग छाने लगता है। उपशास्त्रीय संगीत में चैतीदादरा और ठुमरी में अनेक प्रसिद्ध होलियाँ हैं। होली के अवसर पर संगीत की लोकप्रियता का अंदाज़ इसी बात से लगाया जा सकता है कि संगीत की एक विशेष शैली का नाम ही होली हैं, जिसमें अलग अलग प्रांतों में होली के विभिन्न वर्णन सुनने को मिलते है जिसमें उस स्थान का इतिहास और धार्मिक महत्व छुपा होता है। जहां ब्रजधाम में राधा और कृष्ण के होली खेलने के वर्णन मिलते हैं वहीं अवध में राम और सीता के जैसे होली खेलें रघुवीरा अवध में। राजस्थान के अजमेर शहर में ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर गाई जाने वाली होली का विशेष रंग है। उनकी एक प्रसिद्ध होली है आज रंग है री मन रंग है,अपने महबूब के घर रंग है री।[३०] इसी प्रकार शंकर जी से संबंधित एक होली में दिगंबर खेले मसाने में होली कह कर शिव द्वारा श्मशान में होली खेलने का वर्णन मिलता हैं।[३१] भारतीय फिल्मों में भी अलग अलग रागों पर आधारित होली के गीत प्रस्तुत किये गए हैं जो काफी लोकप्रिय हुए हैं। 'सिलसिला' के गीत रंग बरसे भीगे चुनर वाली, रंग बरसे और 'नवरंग' के आया होली का त्योहार, उड़े रंगों की बौछार, को आज भी लोग भूल नहीं पाए हैं।

आधुनिकता का रंग

होली रंगों का त्योहार है, हँसी-खुशी का त्योहार है, किन्तु होली के भी अनेक रूप देखने को मिलते है। प्राकृतिक रंगों के स्थान पर रासायनिक रंगों का प्रचलन, भांग-ठंडाई की जगह नशेबाजी और लोक संगीत की जगह फ़िल्मी गानों का प्रचलन इसके कुछ आधुनिक रूप हैं।[३२] किन्तु इससे होली पर गाए-बजाए जाने वाले ढोल, मंजीरों, फाग, धमार, चैती और ठुमरी की शान में कमी नहीं आती। अनेक लोग ऐसे हैं जो पारंपरिक संगीत की समझ रखते हैं और पर्यावरण के प्रति सचेत हैं। इस प्रकार के लोग और संस्थाएँ चंदन, गुलाबजल, टेसू के फूलों से बना हुआ रंग तथा प्राकृतिक रंगों से होली खेलने की परंपरा को बनाए हुए हैं, साथ ही इसके विकास में महत्वपूर्ण योगदान भी दे रहे हैं।[३३] रासायनिक रंगों के कुप्रभावों की जानकारी होने के बाद बहुत से लोग स्वयं ही प्राकृतिक रंगों की ओर लौट रहे हैं।[३४] होली की लोकप्रियता का विकसित होता हुआ अंतर्राष्ट्रीय रूप भी आकार लेने लगा है। बाज़ार में इसकी उपयोगिता का अनुमान गत वर्ष होली के अवसर पर एक अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठान केन्ज़ोआमूर द्वारा जारी किए गए नए इत्र होली है  से लगाया जा सकता है।[३५]

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Saturday, February 12, 2011

भारतीय मूल्यों की प्रसांगिकता

भारतीय मूल्यों की प्रसांगिकता 
(युग दर्पण राष्ट्रीय समाचार पत्र के अंक 16-22 फरवरी 2009 में सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित लेख, आज ब्लॉग के माध्यम पुन: प्रकाशित  )
विविधता तो भारत की विशिष्टता सदा से रही है किन्तुआज विविधता में एकता केवल एक नारा भर रह गया है!विभिन्न समुदायों में एहं व परस्पर टकराव का आधार जाति, वर्ग, लिंग,धर्म ही नहीं, पीडी की बदलती सोच मर्यादाविहीन बना विखंडन के संकेंत दे रही है! इन दिनों वेलेंतैनेडे के पक्ष विपक्ष में तथा आजादी और संस्कृति पर मोर्चे खुले हैं. वातावरण गर्मा कर गरिमा को भंग कर रहा है .
-बदलती सोच- एक पक्ष पर संस्कृति के नाम पर कानून में हाथ लेना व गुंडागर्दी का आरोप तथा व्यक्ति की स्वतंत्रता के अतिक्रमण के आरोप है! दूसरे पर आरोप है अपसंस्कृति अश्लीलता व अनैतिकता फैलाने कादूसरी ओर आज फिल्म टीवी अनेक पत्र पत्रिकाओं में मजोरंजन के नाम पर कला का विकृत स्वरूप देश की युवा पीडी का ध्यान भविष्य व ज्ञानोपार्जन से भटका कर जिस विद्रूपता की ओर ले जा रहा है! पूरा परिवार एक साथ देख नहीं सकता!
   घर से पढ़ने निकले 15-25 वर्ष के युवा इस उतेजनापूर्ण मनोरंज के प्रभाव से सार्वजनिक स्थानों (पार्को) में अर्धनग्न अवस्था व आपतिजनक मुद्रा में संलिप्त दिखाई देते हैं! जिससे वहां की शुद्ध वायु पाना तो दूर (जिसके लिए पार्क बने हैं) बच्चों के साथ पार्क में जाना संभव नहीं! फिर अविवाहित माँ बनना व अवैध गर्भाधान तक सामान्य बात होती जा रही है! हमारें पहिये संविधान और समाज की धुरियों पर टिके हैं तो इन्ही के सन्दर्भ के माध्यम स्तिथि का निष्पक्ष विवेचन करने का प्रयास करते हैं!
   विगत 6 दशक से इस देश में अंग्रजो के दासत्व से मुक्ति के पश्चात् इस समाज को खड़े होने के जो अवसर पहले नहीं मिल पा रहे थे मिलने लगे, इस पर प्रगतिशीलता और विकास के आधुनिक मार्ग पर चलने का नारा समाज को ग्राह्य लगना स्वाभाविक है! किन्तु दुर्भाग्य से आधुनिकता के नाम पर पश्चिम की अंधी दौड़ व प्रगतिशीलता के नाम पर "हर उस परम्परा का" विरोध व कीचड़ उछाला जाने लगा, जिससे इस देश को उन "मूल्यों आदर्शों संस्कारों मान्यताओं व परम्पराओं से पोषण उर्जा व संबल" प्राप्त होता रहा है! जिन्हें युगों युगों से हमने पाल पोस कर संवर्धन किया व परखा है तथा संपूर्ण विश्व ने जिसके कारण हमें विश्व गुरु माना है! वसुधैव कुटुम्बकम के आधार पर जिसने विश्व को एक कल्याणकारी मार्ग दिया है! विश्व के सर्वश्रेष्ट आदर्शो मूल्यों व संस्कारों की परम्पराओं को पश्चिम की नवोदित संस्कृति के प्रदूषित हवा के झोकों से संक्रमित होने से बचाना किसी भी दृष्टि से अनुचित नहीं ठहराया जा सकता
सहिष्णुता नैसर्गिक गुण- क्या हमने कभी समझने का प्रयास किया कि आजादी के पश्चात् जब मुस्लिम बाहुल्य पाकिस्तान एक इस्लामिक देश बना, तो हिन्दू बाहुल्य भारत हिन्दवी गणराज्य की जगह धर्मनिरपेक्ष लोकतन्त गणराज्य क्यों बना? यहाँ का बहुसंख्यक समाज स्वाभाव से सदा ही धार्मिक स्वतंत्रता व सहिष्णुता के नैसर्गिक गुणों से युक्त रहा है! धर्म के प्रति जितनी गहरी आस्था विभिन्न पंथों के प्रति उतनी अधिक सहिष्णुता का व्यवहार उतना ही अधिक निर्मल स्वभाव हमें विरासत में मिला है! विश्व कल्याण व समानता का अधिकार हमारी परम्परा का अंग रही है! उस निर्मल स्वभाव के कारण सेकुलर राज्य का जो पहाडा पडाया गया उसे स्वीकार कर लिया!
   60 वर्ष पूर्व उस पीडी के लोग जानते हैं, सामान्य भारतीय (मूल हिन्दू) स्वाभाव सदा ही निर्मल था! वे यह भी जानते हैं कि विश्व कल्याण व समानता के अधिकार दूसरो को देने में सकोच न करने वाले उस समाज को 60 वर्ष में किस प्रकार छला गया? उसका परिणाम भी स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा है! हम कभी हिप्पिवाद, कभी आधुनिकता के नाम खुलेपन (अनैतिकता) के द्वार खोल देते हैं! अब स्थिति ये है कि आज ये देश मूल्यहीनता, अनैतिकता, अपसंस्कारों, अपराधों व विषमताओं सहित;अनेकों व्याधियों, समस्याओं व चुनोतियों के अनंत अंधकार में छटपटा रहा है? उस तड़प को कोई देशभक्त ही समझ सकता है! किन्तु देश की अस्मित के शत्रुओं के प्रति नम्रता का रुझान रखने वाले देश के कर्णधार इस पीढा का अनुभव करने में असमर्थ दिखते हैं!
 निष्ठा में विकार- आजादी की लड़ाई में हिन्दू मुसलिम सभी वन्दे मातरम का नारा लगाते, उससे ऊर्जा पाते थे. उसमे वे भी थे जो देश बांटकर उधर चले गए, तो फिर इधर के मुसलमान वन्देमातरम विरोधी कैसे हो सकते थे ? आजादी के पश्चात अनेक वर्षो तक रेडियो टीवी पर एक समय राष्ट्रगीत, एक समय राष्ट्रगान होता था! इस सेकुलर देश के, स्वयं को "हिन्दू बाई एक्सिडेंट" कहने वाले प्रथम प्रधानमंत्री से दूसरे व तीसरे प्रधानमंत्री तक के काल में इस देश में वन्दे मातरम किसी कोसांप्रदायिक नहीं लगा, फिर इन फतवों का कारण ?
  इस देश की मिटटी के प्रति समपर्ण फिर कैसे कुछ लोगो को सांप्रदायिक लगने लगा? वन्देमातरम हटाने की कुत्सित चालों से किसने अपने घटियापन का प्रमाण दिया? उस समय अपराधिक चुपपी लगाने वालो को, क्यों हिन्दुत्व का समर्थन करने वालों से मानवाधिकार, लोकतंत्र व सेकुलरवाद संकट में दिखाई देने लगता है? 
हिन्दुत्व के प्रति तिरस्कार, कैसा सेकुलरवाद है?  जब कोई जेहाद या अन्य किसी नाम से मानवता के प्रति गहनतम अपराध करता है, तब भी मानवाधिकार कुमभकरनी निद्रा से नहीं जागता? जब हिन्दू समाज में आस्था रखने वालों की आस्था पर प्रहार होता तब भी सता के मद में मदमस्त रहने वाले, कैसे, अनायास; हिन्दुत्व की रक्षा की आवाज सुनकर(भयभीत) तुरंत जाग जाते हैं? किन्तु उसके समर्थन में नहीं; भारतीय संस्कृति व हिन्दुत्व की आवाज उठाने वालों को खलनायक व अपराधी बताने वाले शब्द बाणों से चहुँ ओर से प्रहार शुरू कर देते हैं!
   अभी कुछ दिन पूर्व मंगलूर में पब की एक घटना पर एक पक्षिय वक्तवयो, कटाक्षों, से उन्हें कहीं हिन्दुत्व का ठेकदार, कहीं संस्कृती का ठेकदार का रूप में, फांसीवादी असहिष्णु व गुंडा जैसे शब्दों से अलंकृत किया गया! इसलिए कि उन्हें पब में युवा युवतियों का मद्यपान व अश्लील हरकतों पर आपति थी ? संभव है, इस पर दूसरे पक्ष ने (स्पष्ट:योवन व शराब की मस्ती का प्रकोप में) उतेजनापूर्ण प्रतिकार भी किया होगा? परिणामत दोनों पक्षों में हाथापाई? ताली दोनों हाथो से बजी होगी? एक को दोषी
मान व दूसरे का पक्ष लेना क्या न्यायसंगत है?    जिसअपरिपक्व आयु के बच्चों को कानून नौकरी, सम्पति, मतदान व विवाह का अधिकार नहीं देता; क्योंकि अपरिपक्व निर्णय घातक हो सकते हैं; आकर्षण को ही प्रेम समझने कि नादानी उनके जीवन को अंधकारमय बना सकती है! उन्हें आयु के उस सर्वधिक संवेदनशील मोड़ पर क्या दिशा दे रहें हैं, हम लोग? जिस लोकतंत्र ने आधुनिकाओं को अपने ढंग से जीने का अधिकार दिया है, उसी लोकतंत्र ने इस देश की संस्कृति व परम्पराओं के दिवानो को उस कि रक्षा के लिये विरोध करने का अधिकार भी दिया है! माना उन्हें जबरदस्ती का अधिकार नहीं है तो तुम्हे समाज के बीच नैतिक, मान्यताओं, मूल्यों को खंडित करने का अधिकार किसने दिया? किसी की आस्था व भावनायों को ठेस पहुंचाने की आजादी, कौन सा सात्विक कार्य है?
गाँधी दर्शन- जिस गाँधी को इस देश की आजादी का पूरा श्रेय देकर व जिसके नाम से 60 वर्षों से उसके कथित वारिस इस देश का सता सुख भोग रहें है, उसकी बात तो मानेगे! उसने स्पष्ट कहा था 'आपको ऊपर से ठीक दिखने वाली इस दलील के भुलावे में नहीं आना चाहिय कि शराब बंदी जोर जबरदस्ती के आधार पर नहीं होनी चाहिये; और जो लोग शराब पीना चाहते हैं, उन्हें इसकी सुविधा मिलनी ही चाहिये! हम वैश्याल्यो को अपना व्यवसाय चलाने की अनुमति नहीं देते! इसी तरह हम चोरो को अपनी चोरी की प्रवृति पूरी करने की सुविधाए नहीं देते! मैं शराब को चोरी ओर व्यभिचार दोनों से ज्यादा निन्दनीय मानता हूँ!'
   जब इस बुराई को रोकने का प्रयास किया गया तो हाथापाई होने पर जैसी प्रतिक्रिया दिखाई जा रही है, वैसी उस बुराई को रोकने में क्यों नहीं दिखाई गयी! इस बुराई को रोकने का प्रयास करने पर आज गाँधी को भी ये आधुनिकतावादी इसी आधार पर प्रतिगामी, प्रतिक्रियावादी व फासिस्ट घोषित कर देते?
   इस मदिरापान से विश्व मैं मार्ग दुर्घटनाएँ होती हैं! मदिरापान का दुष्परिनाम तो महिलाओं को ही सर्वाधिक झेलना पड़ता है! इसी कारण महिलाएं इन दुकानों का प्रबल विरोध भी करती हैं! किन्तु जब प्रतिरोध भारतीय संस्कृति के समर्थको ने किया है तो उसमें गतिरोध पैदा करने की संकुचित व विकृत मानसिकता, हमे अपसंस्कृति व अनुचित के पक्ष में खड़ा कर, अनिष्ट की आशंका खड़ी करती है ??
समस्या व परिणाम- किन्तु हमारे प्रगतिशील, आधुनिकता के पाश्चात्यानुगामी गोरो की काली संताने अपने काले कर्मो को घर की चारदीवारी में नहीं पशुवत बीच सड़क करने के हठ को, क्यों अपना अधिकार समझते हैं? पूरे प्रकरण को हाथापाई के अपराध पर केन्द्रित कर, हिन्दू विरोधी प्रलाप करने वाले, क्यों सभ्य समाज में सामाजिक व नैतिक मूल्यों की धज्जियाँ उड़ाने व अपसंस्कृति फैलाने के मंसूबों का समर्थन करने में संकोच नहीं करते ? फिर उनके साथ में मंगलूर जैसी घटना होने पर सभी कथित मानवतावादी उनके समर्थन में हिन्दुत्व को गाली देकर क्या यही प्रमाण देना चाहते हैं: कि १) भारत में आजादी का पश्चात मैकाले के सपनो को पहले से भी तीर्वता से पूरा किया जा सकता है?
   २) जिस संस्कृति को सहस्त्र वर्ष के अन्धकार युग में भी शत्रुओ द्वारा नहीं मिटाया जा सका व आजादी के संघर्ष में प्रेरण हेतु देश के दीवाने गाते थे "यूनान मिश्र रोमा सब मिट गए जहाँ से, कुछ बात है कि अब तब बाकि निशान हमारा", आजाद भारत में उसके इस गौरव को खंडित करने व उसे ही दुर्लक्ष्य करने की आजादी, इस देश के शत्रुओं को उपलब्ध हो? क्या लोकतंत्र, समानता, सहिष्णुता के नाम पर ये छूट हमारी अस्मिता से खिलवार नहीं??
   केवल सता में बने रहना या सीमा की अधूरी,अनिश्चित सुरक्षा ही राष्ट्रिय अस्मिता नहीं है! जिस देश की संस्कृति नष्ट हो जाती है, रोम व यूनान की भांति मिट जाता है! हमारी तो सीमायें भी देश के शत्रुओं के लिये खुली क्यों हैं? हमारे देश के कुछ भागो पर ३ पडोसी देश अपना अधिकार कैसे समझते हैं? वहां से कुछ लोग कैसे हमारी छाती पर प्रहार कर चले जाते हैं? हम चिल्लाते रह जाते हैं?   देश की संस्कृति मूल्यों मान्यताओ सहित इतिहास को तोड मरोड कर हमारे गौरव को धवंस्त किया जाता है! सरकार की ओर से उसे बचाने का कोई प्रयास नहीं किया जाता! क्योंकि हम धर्म निरपक्ष है? फिर, कोई और बचाने का प्रयास करे तो उसे कानून हाथ में लेने का अपराध माना जाता है? इस देश के मूल्यों आदर्शो की रक्षा न करेंगे न करने देंगे? फिर भी हम कहते हैं कि सब धर्मावलम्बीयों को अपने धर्म का पालन करने, उसकी रक्षा करनें का अधिकार है, अपनी बात कहने का अधिकार है? कैसा कानून कैसा अधिकार व कैसी ये सरकार? 
  जरा सोचे- व्यवहार में देखे तो भारत व भारतीयता के उन तत्वों को दुर्लक्ष किया जाता है, जिनका संबध भारतीय संस्कृति, आदर्शो, मूल्यों व परम्पराओं से है! क्योंकि वे हिंदुत्व या सनातन परम्परा से जुड़े हैं? उसके बारे में भ्रम फैलाना, अपमानित व तिरस्कृत करना, हमारा सेकुलर सिद्ध अधिकार है?
   इस अधिकार का पालन हर स्तर पर होना ही चाहिये? किन्तु उन मूल्यों की स्पर्धा में जो भी आए उसे किसी प्रकार का कष्ट नहीं होने दिया जायेगा? हिन्दू हो तो, इस सब को सहन भी करो और असहिष्णु भी कहलाओ? सहस्त्र वर्ष के अंधकार में भी संस्कारो की रक्षा करने में सफल विश्व गुरु, दिन निकला तो एक शतक भी नहीं लगा पाया और मिट गया ! अगली पीडी की वसीयत यही लिखेंगे हम लोग?
   इस विडंबना व विलक्षण तंत्र के कारण हम संस्कृतिविहीन व अपसंस्कृति के अभिशप्त चेहरे को दर्पण में निहारे तो कैसे पहचानेगे? क्या परिचय होगा हमारा?..
  तिलक राज रेलन संपादक युग दर्पण (9911111611), (9540007993).
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Monday, January 17, 2011

श्री राम ने शम्बूक का वध नहीं किया था और न सीताजी को वनवास दिया था-----------------------------विश्व मोहन तिवारी, एयर वाइस मार्शल (से. नि.)

घर 4 दीवारी से नहीं 4 जनों से बनता है,परिवार उनके प्रेम और तालमेल से बनता है! आओ मिलकर इसे बनायें- तिलक


उत्तर काण्ड पर प्रश्न चिऩ्ह

श्री राम ने शम्बूक का वध नहीं किया था और न सीताजी को वनवास दिया था



मैं ही क्या, हम सब चोरों की भर्त्सना ही करते हैं, किन्तु उनके चौर्यकौशल की प्रशंसा करना ही पड़ती है। हम सब पूरी सावधानी से रहना चाहते हैं और पूरे प्रयत्न करते हैं कि चोरी‌ न हो, पुलिस भी इसमें‌ हमारी थो.डी बहुत मदद करती है। किन्तु चोरियां होती हैं, वैसे आज सीना जोरी वाली चोरी ख़ुले आम भी हो रही‌ हैं। चोरियां अनेक प्रकार की होती हैं। मेरा इस समय लक्ष्य लेखन की चोरी पर है। आजकल साहित्यिक चोरी के विरुद्ध यूएसए आदि में कठोर नियम हैं; यह तो प्रशंसनीय है।
साहित्यिक चोरी का एक और सभ्य प्रकार है - किसी अन्य के लेख को लेकर चुपके से उसमें अपनी‌ बात डाल देना और उसी के नाम से प्रकाशित करना। आजकल यह मुद्रित माध्यम के कारण कुछ कठिन हो गया है; किन्तु जब हाथ से ही लिखकर प्रतियां बँटती थीं, तब इस तरह के प्रक्षेप करना अपेक्षाकृत सरल था, और भी विशेषकर कि जब मूल लेखक का निधन हो गया हो। इसका ध्येय अपनी सोच या विश्वासों का परोक्ष प्रचार करना तो होता ही है कितु अधिकांशतया अन्य विचार या विश्वास का हनन या क्षरण करना भी प्रमुख हो सकता है। रामायण और महाभारत दोनों अत्यंत महत्वपूर्ण महाकाव्य प्रक्षेपों से भरे पड़े हैं। अन्य के विश्वास या मान्यताओं को प्रत्यक्षत: गलत न कहते हुए इशारे से या झूठे दृष्टान्तों से यह कार्य किया जाता है और इस चौर्य कौशल की भी प्रशंसा करते ही बनती है क्योंकि पाठक सन्देह करते हुए भी प्रक्षेपित झूठे विश्वासों को सही सिद्ध करने में लग जाता है। जैसे राम ने सीता को वन में लोकनिन्दा के भय से त्यागा था इस पर पहले तो विश्वास नहीं होता किन्तु हम सब इसे येन केन प्रकारेण सत्य सिद्ध करने में लग जाते हैं।
पुरुषोत्तम श्री राम के आदर्श को गिराने के लिये एक झूठी आदर्शात्मक घटना को प्रस्तुत कर उसी श्रद्धाप्राप्त ग्रन्थ रामायण में इतनी कुशलता से जो.ड देना कि पाठक को संदेह भी न हो और राम के पुरुषोत्तमत्व पर भी धब्बा लग जाए – सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे - यही तो प्रक्षेप करने वले शत्रु -चोरों का कौशल है। वैसे तो वाल्मीकि रामायण में अनेक प्रक्षेप हैं, इस समय मैं दो ही प्रक्षेपों की चर्चा करूंगा। १. श्री राम ने लोकनिंदा के भय से सीता जी को, वह भी जब वे गर्भवती थीं, वन में भेज दिया था। २. श्री राम ने दक्षिण दिशा के वासी एक शूद्र व्यक्ति शम्बूक का वध इसलिये किया था कि वह तपस्या कर रहा था !
हम लोगों का लिखे शब्द पर इतना अधिक विश्वास हो गया है कि जब हम उसे पढ़ते हैं तो उसे न केवल मान लेते हैं वरन उसके सिद्ध करने के लिये तर्कों का आविष्कार भी करने लग जाते हैं। और उस शत्रु -चोर लेखक का कौशल भी इसमें सहायता करता है। अपनी बातों को विश्वसनीय बनाने के लिये वह घटनाओं को विश्वसनीय बनाता है। उदाहरण के लिये उत्तरकाण्ड में ब्राह्मणों को दान देने की महिमा और प्रशंसा कर उसे विश्वसनीय बना दिया। मूल रामायण में दान की महिमा या तो अपवाद रूप में या प्रक्षेप में ही आई है। दान की प्रशंसा लिखने से ब्राह्मणों द्वारा प्रक्षेपों का विरोध न करने की संभावना बढ़ जाती है। विश्वामित्र जी जब राजा दशरथ के पास सहायता के लिये जाते हैं तब उनसे दान की‌ बात ही नहीं की जाती, वरन राक्षसों से रक्षा की बात की‌ जाती है। बहुत से विद्वान श्री राम के शम्बूक वध तथा सीताजी के वनवास की घटनाओं को सिद्ध करने के लिये तरह तरह के तर्क दे रहे हैं। जब यह दोनों घटनाएं श्रीराम के सम्पूर्ण चरित्र तथा कार्यों के साथ तनिक भी‌ मेल नहीं खाती और न महर्षि वाल्मीकि के उद्देश्यों से मेल खाती हैं, तब भी हम क्यों उन पर विश्वास कर लेते हैं और तर्कों द्वारा सिद्ध करते रहते हैं, यह एक आश्चर्य की बात तो है, यह दर्शाती‌ है कि हमारी सोच अवैज्ञानिक होती‌ जा रही है।
वाल्मीकि रामायण के युद्ध काण्ड का समापन पढ़ने से यह तो स्पष्ट हो जाता है कि रामायण वहीं पर समाप्त हो जाती है। वहां अन्त में लिखा है कि राज्याभिषेक के पश्चात श्री राम ने ११,००० वर्ष राज्य किया। अभी हम इस विवाद में‌ न पड़ें कि वे ११००० वर्ष राज्य कैसे कर सकते थे । कवि द्वारा इसे उसकी अतिशयोक्ति मानकर इतना ही समझें कि उऩ्होंने दीर्घकाल तक राज्य किया, क्योंकि शब्द 'हजारों' का आधिक्य दर्शाने के लिये उपयोग बहुत प्रचलित था और है। फ़िर रामायण परायण की फ़लश्रुति आ जाती है कि - 'जो भी इस रामायण का पाठ करेगा या श्रवण करेगा उसे बहुत पुण्य मिलेगा' इत्यादि। अब इसके बाद उत्तरकाण्ड के लिखे जाने की‌ बात ही नहीं‌ बनती।
उत्तरकाण्ड में जो वर्णन है वह वीभत्स या जादू या चमत्कारों के वर्णन के कारण अत्यंत रुचिकर होते हुए भी नितान्त अविश्वसनीय है। स्वयं लक्ष्मण उसे सुनकर बार बार यही कहते हैं कि यह तो अत्यंत अद्भुत है। पहले तो उसमें रावण ही नहीं‌ वरन समस्त राक्षस जाति का इतिहास है। जब मूल रामायण मुख्यत: राजा दशरथ के जीवन से ही प्रारंभ होती‌ है न कि इक्ष्वाकु वंश या ककुत्स्थ से, और रावण के जीवन का मूल रामायण में पर्याप्त वर्णन है तब राक्षसों के पूरे इतिहास के वर्णन का रामायण में औचित्य ही नहीं‌ बनता। वह तो किसी बाक्स आफ़िस हिट फ़िल्म के 'सीक्वैल' की तरह उनके विषय में अतार्किक और जादुई घटनाओं का वर्णन कर पाठकों को आकर्षित करना ही उन प्रक्षेपकारों का पहला ध्येय था, जिसमें वे सफ़ल हुए। प्रमुख ध्येय था राम के मर्यादत्व पर चोट करना। इसके लिये उऩ्होंने दो संवेदनशील विषय चुने - अबला और चरित्रवान स्त्री‌ पर और निर्दोष शूद्र पर अत्याचार, वह भी स्वयं राजा राम के द्वारा।
अबला स्त्री पर अत्याचार की आधारभूमि तो संस्कृत के प्रसिद्ध साहित्यकार भवभूति ने पहले ही तैयार कर दी थी। महावीर जैन पर एक ग्रन्थ लिखने के बाद भवभूति ने अद्भुत कल्पना का दुरुपयोग करते हुए 'उत्तर रामचरित' नाटक लिखा। अपने आक्रमण को विश्वसनीय बनाने के लिये एक रससिक्त स्वतंत्र रचना भी की जाती है। भवभूति का उत्तररामचरित ऐसा ही ग्रन्थ है। इसका सिद्धान्तन तो विरोध हो ही नहीं सकता क्योंकि यह तो साहित्यकार का जन्मसिद्ध अधिकार है कि वह रचना करने के लिये स्वतंत्र है। किन्तु हमें उसके कुप्रचारात्मक दृष्टिकोण से सावधान तो रहना ही चाहिये। इस नाटक में करुणरस के सिद्ध कवि भवभूति ने सीता जी को इतनी करुणाजनक स्थिति में दर्शाया है कि पाठक आँसू‌ बहा बहाकर उनकी प्रशंसा करे । इसके लिये उऩ्होंने राम के द्वारा सीता को वन में निष्कासित किया क्योंकि जनता उन पर लांछन लगा रही थी। राम को भी एक तरह से लोक का सम्मान करने वाला राजा घोषित कर दिया, तथा इस तरह सबसे बड़ा त्याग करने वाला भी। प्रत्यक्षरूप से उऩ्होंने राम की बुराई नहीं की, और परोक्षरूप से उऩ्हें मूर्ख और स्त्री का अपमान करने वाला भी सिद्ध कर दिया।
जब कोई राजा जो अपने न्याय के लिये प्रसिद्ध हो और वह एक ऐसा न्याय कर दे जो नितान्त अन्याय हो तब उस राजा को भी कोई मूर्ख के अतिरिक्त क्या मानेगा ! न्याय करने के लिये सर्वप्रथम आवश्यकता इस बात की है कि दोनों पक्षों को सुना जाए। इस राजा ने तो एक भी पक्ष को नहीं सुना। एक पक्ष को विश्वसनीय सूत्रों से सुनने को न्यायालय के नियमों के अनुसार सुनना नहीं माना जा सकता। किन्तु यह न्यायिक पद्धति तो नहीं कि आरोपी को न केवल आरोप लगाने वाले से प्रश्न न करने का अवसर दिया जाए वरन उसे सुना ही न जाए । प्रश्न करने पर वह आरोपकर्ता ही अपनी गलती स्वीकार कर सकता था कि वह आरोप लगाते समय गंभीर नहीं था। खैर, यह न भी‌ होता तब भी आरोपी को उसका अधिकार तो मिलना ही चाहिये था। दूसरी बात कि जब राम ने अग्नि परीक्षा करवा ही ली थी और जिसका घोषित उद्देश्य यही था कि जनता सीता के निर्दोष होने पर संदेह ही न करे, और अग्निदेव ने सीता जी को पूर्ण रूप से निर्दोष सिद्ध किया था। अग्निपरीक्षा सरीखी अनोखी और मर्मान्तक घटना का प्रचार तो स्वयं ही हो गया होगा, अन्यथा राम इस सत्य का प्रचार तो करवा ही सकते थे क्योंकि उनके पास एक से एक विश्वसनीय साक्षी थे । जब असत्य जनसमाज मैं फ़ैला हो तब सत्य का प्रचार करना भी राज्य का कर्तव्य होता है, न कि अफ़वाहों से डरकर अन्याय करना ! जब राजा को अथवा न्यायाधीश को मालूम हो कि 'सुप्रीम कोर्ट' (अग्नि परीक्षा) ने एक निर्णय दे दिया है तब छोटे न्यायालय के लिये उसको मान्यता देना अनिवार्य होता है, अन्यथा वह सर्वोच्च न्यायालय की मानहानि का कारण बन जाता है। और य्दि सीता को लोकनिंदा के भय से त्यागा था तब ऐसा त्याग करने के बाद जनता में उसकी घोषणा करवाना भी तो अवश्यक होता है ताकि जनता उससे कुछ सीखे। ऐसा भी राम ने नहीं किया। यह सब आवश्यक कार्य न करने वाला न्यायाधीश राम तो 'अयोग्य' ही सिद्ध होता है - यही भवभूति का उद्देश्य था जिसमें उऩ्हें आशातीत सफ़लता मिली। और राम के शत्रुओं ने इसे एक नया काण्ड बनाकर उसमें‌ डाल दिया।
चतुर शत्रु तो वह है जो आपका ही आयुध लेकर आपको ही‌ मारे। कुछ ब्राह्मणों के अहंकार की कमजोरी का लाभ उठाकर ऐसा प्रकरण डाल दे कि जो प्रत्यक्ष रूप से तो ब्राह्मणों के पक्ष में दिखे और परोक्ष रूप से राम की‌ मर्यादा पर चोट करे । एक ब्राह्मण के पुत्र की मृत्यु हो जाती है और वह ब्राह्मण अहंकारपूर्ण शब्दों में राजा श्री राम को उसके लिये दोषी ठहराता है क्योंकि उसके राज्य में कोई शूद्र तपस्या कर रहा है। वह राजा से कहता है कि राजा दोषी को ढूँढ़े और दण्ड दे।
वह घटना तो निश्चित ही वाल्मीकि के काल की नहीं हो सकती क्योंकि स्वयं वाल्मीकि के विषय में‌ यह जाना जाता है कि वे ऋषि बनने के पूर्व एक डाकू थे । वैसे भी, अनेक उपनिषद तब तक लिखे जा चुके थे । उपनिषदों में तो न केवल शूद्रों ने तपस्या की है वरन उनमें से कुछ तो ऋषि की‌ गरिमा को प्राप्त हुए हैं - यथा ऐतरेय, सत्यकाम आदि। उपनिषदों की सारी शिक्षा मात्र मानव के लिये है, किसी धर्म, या जाति या रंग के लिये नहीं, औपनिषदिक ऋषि तो सब प्राणियों में एकत्व ही देखता है। और श्री राम तथा उनके भाइयों‌ ने गुरु वसिष्ठ से उपनिषदों सहित समस्त वेदों की उत्तम शिक्षा प्राप्त की थी। समस्त रामायण में श्रीराम के समस्त कार्यों में‌ यही मानव की एकता देखी‌ जा सकती है, वे तो मनुष्य के गुणकर्म देखकर ही यथायोग्य व्यवहार करते हैं। अत: श्री राम को तो एक शूद्र द्वारा तपस्या करने पर प्रसन्न होना था, न कि उसकी ह्त्या करना था। वैसे भी यह तो वही श्री राम हैं जो कि एक भीलनी शबरी से मात्र मिलने के लिये अपने रास्ते से हटकर जाते हैं, उस शबरी के पास कि जिससे मिलने के लिये सूचना एक राक्षस कबन्ध देता है। वही श्री राम जो निषादराज केवट को गले लगाते हैं, उसे प्रिय मित्र कहते हैं, जब कि नदी पार करने के बाद वे उसे पारिश्रमिक तथा धन्यवाद देकर महान ऋषियों से मिलने आगे जा सकते थे । एक इसी शम्बूक वध घटना का उद्धरण कर डाक्टर अम्बेडकर ने संसद में घोषणा की थी कि वे ऐसे हिदूधर्म का सम्मान नहीं कर सकते । काश कि किसी‌ विद्वान ने उऩ्हें वास्तविकता का परिचय कराया होता, तो आज जो अनावश्यक भेद दलितों तथा अन्य में‌ हो गया है वह न होता। उस प्रक्षेप डालने वाले शत्रु ने हिंदू धर्म पर कितन बड़ा सफ़ल प्रहार किया है; उसके कौशल की प्रशंसा और हमारे न सोचने की निंदा ही करते बनती है।
महर्षि वाल्मीकि का ध्येय तो इस संसार के उस वास्तविक मनुष्य के चरित्र पर महाकाव्य लिखना था कि जो आदर्श हो । नारद जी उऩ्हें ऐसे आदर्श व्यक्ति श्री राम का परिचय देते हैं। परिचय देते समय वे रामायण की समस्त प्रमुख घटनाओं की संक्षिप्त जानकारी‌ भी देते हैं। उसमें भी न तो सीता जी के वनवास की और न शम्बूक के वध की चर्चा तो क्या उनका नाम तक नहीं दिया है। नारद जी जो अद्भुत जानकारी रखते हैं उऩ्होंने इस अत्यंत मह्त्वपूर्ण घटना का उल्लेख ही‌नहीं किया तब यह घटना रामायण में हो ही‌ नहीं सकती और साथ ही इसलिये भी कि यह रचयिता के मूल उद्देश्य का एकदम विरोध करती‌ है, यह श्री राम की मूल मान्यताओं का, उनकी शिक्षा का, उनके अन्य समस्त कार्यों के विरोध में है। यह एक बड़ी चूक उन राम के शत्रु साहित्यिक चोरों से हो गई कि वे नारद जी के वर्णन में प्रक्षेप डालना भूल गए । महाभारत जैसे विशाल महाकाव्य में‌ महर्षि व्यास जी ने भी रामायण की मुख्य घटनाओं का वर्णन किया है और उनमें भी इस घटना का उल्लेख नहीं है। महाभारत काल तक श्री राम का विरोध करने वाला कोई नहीं‌ हुआ था। अर्थात यह प्रक्षेप महाभारत काल के बाद, विशेषकर जब सनातन (हिन्दू) धर्म का विरोध कुछ अन्य धर्मी करने लगे थे, में ही डाला गया है। और मेरा अनुमान है कि यह प्रक्षेप भवभूति के 'उत्तर रामचरित' नाटक के बाद डाला गया है। इतनी ऊँची कल्पना करने के लिये भवभूति के समान एक विशेष योग्यता वाला व्यक्ति ही चाहिये। दृष्टव्य है कि भवभूति ने श्री महावीर ग्रन्थ भी‌ लिखा था।
स्वयं संत तुलसीदास के समान अद्भुत विद्वान तथा साहित्यकार ने भी इस शम्बूक वाली‌ क्रूर घटना को और सीता के वनवास वाली अमानवीय घटना को स्वीकार नहीं किया है। यह गीताप्रैस गोरखपुर प्रकाशित रामचरित मानस में देखा जा सकता है। रामानन्द जी के टीवी प्र्स्तुति में‌ भी इन घटनाओं को स्थान नहीं मिला है। हां कुछ अन्य प्रकाशक अज्ञानवश या अन्य कारणवश इन घटनाओं को रामचरित मानस में प्रकाशित करते हैं।
अत: इसमें सण्देह नहीं होना चाहिये कि न तो श्री राम ने शम्बूक का वध किया और न सीताजी को वन में भेजा, और यह प्रक्षेप डालने वाला दुष्कृत्य निश्चित ही श्री राम के शत्रुओं का है।

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